उपकल्पना या परिकल्पना किसी भी अनुसंधान के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह अनुसंधान प्रक्रिया में एक विशेष उपयोगिता और महत्त्व रखती है। किसी भी समस्या के समाधान के लिए परिकल्पना की आवश्यकता तुरंत महसूस होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, परिकल्पना के बिना अनुसंधान कार्य को पूर्ण करना संभव नहीं है, क्योंकि पूरा अनुसंधान इसी पर आधारित होता है। यदि परिकल्पना मौजूद न हो, तो शोधकर्ता विषय संबंधी अध्ययन में दिशाहीन हो सकता है और अनावश्यक या अप्रासंगिक आंकड़ों का संग्रह कर सकता है। इसके अभाव में समस्या से संबंधित आवश्यक जानकारी प्राप्त करना कठिन हो जाता है।
परिकल्पना शोधकर्ता को एक निश्चित दिशा प्रदान करती है, जिसके आधार पर वह तार्किक और प्रमाणिक निष्कर्ष तक पहुँच सकता है। इस प्रकार, परिकल्पना समस्या से जुड़े तथ्यों को स्पष्ट करती है और अनुसंधान की प्रक्रिया को संगठित करती है। यह प्रारंभिक स्तर पर संभावित परिणामों का संकेत देती है, लेकिन इसकी सत्यता को प्रमाणित करने की आवश्यकता होती है।
श्री एच. एच. गोपाल के अनुसार, उपकल्पनाएँ दो प्रकार की होती हैं—
गुडे और हॉट (Goode and Hatt) के अनुसार, उपकल्पना को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:
उपकल्पना अनुसंधान के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है और अध्ययन को एक निश्चित दिशा प्रदान करती है। यह शोधकर्ता को यह निर्धारित करने में सहायता करती है कि किन तथ्यों का संग्रह किया जाना चाहिए और किन्हें अनदेखा किया जा सकता है। इसके बिना, अनुसंधानकर्ता बिना किसी निश्चित दिशा के अनावश्यक डेटा एकत्र कर सकता है, जिससे समय और संसाधनों की बर्बादी हो सकती है।
उपकल्पना अनुसंधान की दिशा निर्धारित करने में सहायक होती है। यह अध्ययनकर्ता को यह स्पष्ट करने में सहायता करती है कि उसे कौन-सी जानकारी एकत्र करनी है और किस प्रकार के तथ्यों को अनदेखा करना है। इससे अनुसंधान प्रक्रिया संगठित रहती है और अनावश्यक आंकड़ों को संग्रहित करने से बचा जा सकता है।
एक अच्छी तरह से परिभाषित उपकल्पना अनुसंधानकर्ता को अनावश्यक तथ्यों में उलझने से बचाती है। यह अनुसंधान कार्य को सुचारू और सुनियोजित बनाती है, जिससे समय, प्रयास और धन की बचत होती है। अध्ययनकर्ता जानता है कि उसे किस स्रोत से और किस समय आवश्यक जानकारी प्राप्त करनी है।
लुण्डबर्ग (Lundberg) के अनुसार, "उपकल्पना के उपयोग से अनुसंधान क्षेत्र सीमित हो जाता है और शोधकर्ता गहराई से विषय का अध्ययन करने में सक्षम हो जाता है।"
किसी भी अध्ययन में कई पहलू हो सकते हैं। यदि शोधकर्ता सभी पहलुओं पर एक साथ कार्य करना शुरू कर दे, तो वह किसी भी पहलू का गहराई से अध्ययन नहीं कर पाएगा। उपकल्पना अनुसंधान को केंद्रित करती है और शोधकर्ता को भ्रमित होने से रोकती है।
उपकल्पना यह सुनिश्चित करती है कि केवल प्रासंगिक और उपयोगी जानकारी ही एकत्र की जाए। यह शोधकर्ता को अनावश्यक और अप्रासंगिक डेटा से बचाती है।
शोध में उपकल्पना का परीक्षण और पुनर्परीक्षण किया जाता है, जिससे यह निर्धारित किया जाता है कि प्रारंभिक कथन सत्य है या असत्य। यदि उपकल्पना का निर्माण सावधानीपूर्वक किया जाए, तो यह तार्किक और उपयुक्त निष्कर्ष निकालने में सहायक होती है।
उपकल्पना और सिद्धांत परस्पर संबंधित होते हैं। गुडे और हॉट (Goode & Hatt) के अनुसार, "तार्किक रूप से तैयार किया गया निष्कर्ष ही उपकल्पना बनता है और यदि यह प्रमाणित हो जाता है, तो यह एक सैद्धांतिक संरचना का हिस्सा बन जाता है।" जब कोई उपकल्पना वैज्ञानिक परीक्षणों में सही साबित हो जाती है, तो उसे सिद्धांत का रूप दे दिया जाता है।
उपकल्पना के निर्माण में कई प्रकार की बाधाएँ आ सकती हैं, जिन्हें मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
सैद्धांतिक आधार की स्पष्टता के अभाव में उपकल्पना तैयार करना कठिन हो जाता है। इसके अंतर्गत आने वाली प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं:
कई बार शोधकर्ता को अध्ययन के लिए आवश्यक सैद्धांतिक संदर्भ उपलब्ध नहीं होता, जिससे उपयुक्त उपकल्पना तैयार करना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई शोधकर्ता साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन में रुचि रखता है, लेकिन इस क्षेत्र में कोई ठोस सैद्धांतिक आधार नहीं है, तो उपकल्पना बनाना जटिल हो जाएगा।
अक्सर शोधकर्ता किसी ऐसे विषय का चयन कर लेते हैं, जिसमें उनकी समझ सीमित होती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी को ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति में हुए परिवर्तनों का अध्ययन करना है, तो उसे ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संदर्भों की गहरी जानकारी होनी चाहिए। इस ज्ञान के अभाव में उपयुक्त उपकल्पना तैयार करना कठिन हो जाता है।
यदि किसी शोधकर्ता के पास सैद्धांतिक आधार मौजूद भी हो और आवश्यक ज्ञान भी हो, तब भी वह सही तर्क और उचित पद्धति के अभाव में इसे प्रभावी ढंग से उपयोग करने में असमर्थ हो सकता है। इससे उपकल्पना निर्माण की प्रक्रिया जटिल हो जाती है।
अनुसंधान तकनीकों और पद्धतियों में विविधता के कारण भी उपकल्पना निर्माण में कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं।
समय के साथ शोध पद्धतियों में बदलाव आ रहा है। किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए कई अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, गणितीय तकनीकों और सांख्यिकीय उपकरणों का उपयोग बढ़ गया है, जिससे उपयुक्त अनुसंधान पद्धति का चयन कठिन हो जाता है।
कई बार शोधकर्ता नवीन अनुसंधान तकनीकों से परिचित नहीं होते हैं, जिसके कारण वे उनका सही ढंग से उपयोग नहीं कर पाते। इससे उपकल्पना का परीक्षण और पुनर्परीक्षण करने के बावजूद प्राप्त निष्कर्षों की विश्वसनीयता कम हो सकती है।
उपकल्पना अनुसंधान को दिशा देने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह अध्ययनकर्त्ता को अनावश्यक डेटा एकत्र करने से बचाकर तार्किक और व्यवस्थित शोध करने में मदद करता है। हालाँकि, उपकल्पना निर्माण में सैद्धांतिक आधार की कमी और अनुसंधान तकनीकों की जटिलता जैसी कठिनाइयाँ आती हैं। लेकिन सही दृष्टिकोण अपनाकर इन्हें दूर किया जा सकता है।
जब उपकल्पना सिद्ध हो जाती है, तो वह एक सिद्धांत बन जाती है, जिससे नए शोधों का मार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए, उपकल्पना किसी भी वैज्ञानिक अनुसंधान का आधार होती है।