लीबेन्स्टीन के क्रांतिक न्यूनतम प्रयास सिद्धांत
प्रोफेसर हार्वे लेबेन्स्टीन ने अपनी पुस्तक 'Economic Backwardness and Economic Growth' (1957) में एक सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसे 'न्यूनतम आवश्यक प्रयास सिद्धांत' कहा जाता है। उन्होंने इस सिद्धांत के माध्यम से अर्थव्यवस्था के विकास के संबंध में अर्ध-विकसित देशों की समस्याओं का अध्ययन किया।
लेबेन्स्टीन के विचार में, प्रत्येक अर्थव्यवस्था में कुछ कारक होते हैं जो आय को बढ़ाने में मदद करते हैं (आय बढ़ाने वाले कारक), और कुछ कारक होते हैं जो आय को कम करते हैं (आय घटाने वाले कारक)। इन कारकों में कुछ अंतर हो सकता है, लेकिन अधिकांश स्थितियों में आय बढ़ाने वाले कारक अधिक प्रभावशाली होते हैं, जबकि जनसंख्या में वृद्धि आय को कम करने वाला कारक होता है। आर्थिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि आय बढ़ाने वाले कारक आय घटाने वाले कारकों की तुलना में अधिक प्रभावशाली हों। इसके लिए, आर्थिक विकास के लिए एक आवश्यक न्यूनतम प्रयास की आवश्यकता होती है, जिससे आर्थिक प्रगति हो सके।
सिद्धांत की मान्यताएँ:-
लेबेन्स्टीन के सिद्धांत की मुख्य मान्यताएँ निम्नलिखित हैं:
जनसंख्या दबाव और निर्धनता का दुश्चक्र: इस मान्यता के अनुसार, आर्द्ध-विकसित देशों में जनसंख्या दबाव निर्धनता और कैपिटल संचयन के एक चक्र का कारण होता है।
साधनों और उपयोगों में अविभाज्यता: इस मान्यता के अनुसार, संसाधनों और उपयोगों को आसानी से विभाजित नहीं किया जा सकता है, जिससे अप्रयोजनीयता और अपर्याप्त उपयोग होता है।
आर्थिक विकास के लिए प्रोत्साहन की कमी: इस मान्यता में कहा गया है कि आर्थिक विकास के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन या प्रयास की कमी होती है, जिसके कई कारण हो सकते हैं।
मौजूदा प्रथाओं और प्रथाओं का प्रभाव: इस मान्यता में ध्यान दिलाया गया है कि पुरानी मान्यताएं, स्थितियां, और आचारणाओं का प्रभाव होता है और उन पर अचानक और प्रभावी हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है।
'आय बढ़ाने वाले' और 'आय घटाने वाले' के बीच संघर्ष: इस मान्यता में हाइलाइट किया गया है कि 'आय बढ़ाने वाले' और 'आय घटाने वाले' के बीच संघर्ष होता है।
आर्थिक विकास और उर्वरता दर के संबंध: इस मान्यता में बताया गया है कि आर्थिक विकास दर बढ़ने पर उर्वरता दर स्वतः घटने लगती है, और आय और जनसंख्या के बीच प्रत्यक्ष संबंध होते हैं, जबकि आवश्यक न्यूनतम आकार से कम का विनियोग होने पर जनसंख्या बढ़ती है।
बंद अर्थव्यवस्था के रूप में बचत, आय, विनियोग: इस मान्यता में कहा जाता है कि बंद अर्थव्यवस्था के रूप में बचत, आय, और विनियोग का ही समावेश होता है।
लेबेन्स्टीन के सिद्धांत की मुख्य बातें:-
1. जनसंख्या वृद्धि, प्रति व्यक्ति आय का फलन (Population Growth is a Function of Per Capita Income):
- इस सिद्धांत के अनुसार, जनसंख्या वृद्धि की दर प्रति व्यक्ति आय के स्तर की एक फलन होती है और इसका संबंध विकास की अवस्थाओं से होता है।
प्रथम अवस्था (कम आय): इस अवस्था में, जीवन-निर्वाह साम्य स्तर पर होता है, और जनसंख्या में वृद्धि नहीं होती है क्योंकि जन्म और मृत्यु दरें दोनों ही अधिक होती हैं।
द्वितीय अवस्था (अधिक आय): इस अवस्था में, जीवन-निर्वाह स्तर से प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है, मृत्यु दरें गिरती हैं, लेकिन जन्म दर तत्काल नहीं घटती है, और इससे जनसंख्या वृद्धि होती है।
तृतीय अवस्था (और अधिक आय वृद्धि): इस अवस्था में, प्रति व्यक्ति आय में और अधिक वृद्धि होती है, लेकिन बच्चों की 'उपभोग उपयोगिता' घटती है, जिसके कारण जन्म दरें बढ़ जाती हैं।
चतुर्थ अवस्था (बहुत अधिक आय): इस अवस्था में, प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक होती है, और मृत्यु दर और जन्म दर दोनों ही कम होती हैं, और जनसंख्या में बहुत ही कम वृद्धि होती है।
Fig:-
इस ग्राफ़ के माध्यम से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं:
- ग्राफ़ में X अक्षर प्रति व्यक्ति आय के स्तर को दर्शाता है, जो जनसंख्या वृद्धि के साथ बढ़ता है।
- Y बिंदु एक सीमा दर्शाता है, जिस पर जीवन-निर्वाह संतुलन की स्थिति होती है, जिसके पास न तो जनसंख्या और न ही आय की अधिकता होती है।
- चित्र में A बिंदु उस स्थिति को दिखाता है जहाँ पर जीवन-निर्वाह संतुलन होता है।
- बिंदु E पर जनसंख्या वृद्धि की दर में गिरावट आती है, जिसके पश्चात् जीवन-निर्वाह संतुलन बनता है।
- ग्राफ़ में P, N, B, C, D प्रति व्यक्ति आय के प्रत्येक स्तर पर जनसंख्या वृद्धि की दर को दर्शाता है।
- चित्र में वक्र N जीवन-निर्वाह संतुलन को व्यक्त करता है, जो राष्ट्रीय आय को जनसंख्या वृद्धि के स्तर के समान बनाता है।
इससे प्रकट होता है कि जनसंख्या वृद्धि की दर को पार करने के लिए आवश्यक न्यूनतम प्रयत्न यानी Y, प्रति व्यक्ति आय को एक निश्चित सीमा को पार करना होगा, जैसे कि चित्र में दिखाया गया है।
2. आवश्यक विनियोग की मात्रा (Volume of Necessary Investment):
विनियोजन की मात्रा: इस सिद्धांत के अनुसार, एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि आवश्यक न्यूनतम प्रयास कितनी होनी चाहिए। इसके लिए, विनियोजन की मात्रा इतनी अधिक होनी चाहिए कि न केवल आय को कम करने वाली शक्तियों का सामना करने के लिए पर्याप्त हो, बल्कि आय वृद्धि की कुछ मात्रा पूँजी निर्माण के लिए भी उपलब्ध रहे।
विनियोजन कैसे करें: दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि विनियोजन एकमुश्त में किया जाए या टुकड़ों में। लेबेन्स्टीन का सुझाव है कि यदि एक मिनिमम आवश्यक प्रति व्यक्ति आय स्तर (Critical minimum Per capita Income Level) और साम्य प्रति व्यक्ति आय (Equilibrium Per Capital Income) के बीच की छोटी-छोटी आवधियों में विनियोजन नहीं किया जा सकता है, तो समयानुसार यह छोटी-छोटी किस्तों में भी किया जा सकता है। इसका मतलब है कि पहले इंजेक्शन का प्रभाव होते ही दूसरा इंजेक्शन लगाया जा सकता है। इसका यह भी मतलब है कि बड़े इंजेक्शन के स्थान पर छोटे-छोटे इंजेक्शन उपयोगी हो सकते हैं यदि वे सही समय पर लगाए जाएं।
विनियोग की आवश्यक न्यूनतम मात्रा: लेबेन्स्टीन मानते हैं कि यदि देश में वर्तमान आय-स्तर पर आवश्यक न्यूनतम मात्रा नहीं है, तो विदेशी सहायता का भी सहारा लिया जा सकता है।
Fig:-
इस ग्राफ़ के लिए निम्नलिखित प्रमुख प्रमाण हैं:
- X-अक्षर प्रति व्यक्ति आय के स्तर को दर्शाता है, जो किसी देश की आर्थिक स्थिति को प्रति व्यक्ति की आय के रूप में प्रकट करता है।
- Y-बिंदु वह सीमा है जिसे "आवश्यक न्यूनतम प्रयास" की आवश्यकता होती है। यदि प्रति व्यक्ति आय इस सीमा को पार करती है, तो आर्थिक विकास की प्रक्रिया आरंभ होती है।
- A, O, D, C, और F इस ग्राफ़ में प्रति व्यक्ति आय के प्रत्येक स्तर पर जनसंख्या वृद्धि की दर को दिखाते हैं।
- क्षेत्र (Area) I और क्षेत्र (Area) III इस ग्राफ़ में दिखाते हैं कि आवश्यक न्यूनतम प्रयास की मात्रा कितनी होनी चाहिए, जिससे आय वृद्धि की भी जरूरत होती है।
- ग्राफ़ में MCA (Critical minimum Per capita Income Level) और L (Equilibrium Per Capital Income) भी दिखाए गए हैं, जो आवश्यक न्यूनतम प्रयास की सीमा को दर्शाते हैं।
इस ग्राफ़ के माध्यम से हम देख सकते हैं कि आवश्यक न्यूनतम निवेश की मात्रा इतनी होनी चाहिए जिससे केवल आय को घटाने वाली शक्तियों का सामना किया जा सकता है, और साथ ही साथ कुछ पूँजी निर्माण के लिए भी उपलब्ध होनी चाहिए। इस निवेश को समयानुसार विनियोगित करना भी महत्वपूर्ण है ताकि संबंधित प्रति व्यक्ति आय के स्तर को सामान्य किया जा सके और अर्थव्यवस्था को अधिक सुसंगत बनाया जा सके। यदि प्रथम निवेश की मात्रा सही हो, तो बाद में छोटे-छोटे निवेश भी किये जा सकते हैं, जैसे कि ग्राफ़ में दिखाया गया है।
लेबेन्स्टीन का मत है कि यदि आवश्यक न्यूनतम निवेश की मात्रा देश में वर्तमान आय-स्तर पर उपलब्ध नहीं है, तो विदेशी सहायता का भी सहारा लिया जा सकता है।
3. विकास के अभिकर्ता (Growth Agents):
विकास के अभिकर्ता क्या होते हैं: लेबेन्स्टीन के अनुसार, विकास का कार्य विकास के अभिकर्ता का होता है। इसका मतलब है कि विकास के लिए जनसंख्या में मौजूद विभिन्न क्षमताओं का परिमाणात्मक और गुणात्मक विकास होना चाहिए। जब देश में इन क्षमताओं की विकास होती है, तो विकास के अभिकर्ताओं का विकास होता है।
विकास अभिकर्ताओं के प्रकार: विकास अभिकर्ताओं के द्वारा विकास में योगदान करने वाली क्रियाएं (Growth Contributing Activities) संचालित की जाती हैं। ये अभिकर्ता निम्नलिखित हो सकते हैं:
उपक्रमी (Entrepreneur): व्यापारिक और नई व्यवसायिक प्रक्रियाओं को प्रारंभ करने वाले व्यक्ति।
विनियोजक (Investor): पूँजी निवेश करने वाले व्यक्ति या संगठन।
बचतकर्ता (Saver): पैसे बचाने वाले व्यक्ति जो निवेश के लिए पूँजी उपलब्ध कराते हैं।
नवप्रवर्तक (Innovator): नई और आविष्कारिक तकनीकों और विचारों को अपनाने वाले व्यक्ति।
4. प्रेरणाएं (Incentives):
लेबेन्स्टीन के अनुसार, विकास के लिए वृद्धि कारणों का विस्तार या संकुचन व्यक्तिगत प्रत्याशित फल, वास्तविक परिणाम, क्रियाओं और परिणामों के बीच की अन्योन्य क्रिया के प्रोत्साहन पर निर्भर करेगा। इसका मतलब है कि विकास अभिकर्ताओं के द्वारा की जाने वाली क्रियाओं के लिए प्रेरणाएं मौजूद होनी चाहिए। इन प्रेरणाओं के परिणामस्वरूप, आर्थिक विकास हो सकता है।
प्रेरणाओं के प्रकार:
शून्य-राशि प्रेरणा (Zero-sum incentive): अर्द्ध-विकसित देशों में उत्पादन के वितरण की अपेक्षा कम होती है, और इससे केवल कुछ व्यक्तिगत लाभ होता है, सामाजिक लाभ नहीं होता।
धनात्मक-राशि प्रेरणा (Positive-sum incentives): ये प्रेरणाएं विकास का आधार बनती हैं और राष्ट्रीय आय में वृद्धि को संभव बनाती हैं। इन प्रेरणाओं के परिणामस्वरूप, विकास होता है, क्योंकि विकास कार्यों का उत्पादन और जोखिम पर आधारित होता है, और जब देश में धनात्मक कार्य और जोखिम विकसित होते हैं, तब ही विकास संभव होता है।
इसके अर्थ क्षमताओं का विकास, विकास के अभिकर्ताओं के माध्यम से होता है, जिन्हें उपक्रमी, विनियोजक, बचतकर्ता, और नवप्रवर्तक कहा जाता है, और इन कारकों के तहत प्रेरणाएं भी महत्वपूर्ण होती हैं।
@abcd 1 days ago
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