उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों और बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर एक नया और युवा दल उभरा, जो पुराने नेताओं के आदर्शों और तौर-तरीकों का कड़ा आलोचक था। इस दल का उद्देश्य था कि कांग्रेस का प्रमुख लक्ष्य स्वराज होना चाहिए, यानी पूर्ण स्वतंत्रता। उन्होंने कांग्रेस की उदारवादी नीतियों की आलोचना की और उनके धीमी गति से स्वतंत्रता की दिशा में बढ़ने के तरीके का विरोध किया।
1905 से 1919 का काल भारतीय इतिहास में उग्रवादी युग के नाम से जाना जाता है। इस युग में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया मोड़ आया, जब बालगंगाधर तिलक, विपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय जैसे प्रमुख नेता उभरे। इन उग्रवादी नेताओं का मानना था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए केवल प्रार्थना और अपीलें पर्याप्त नहीं हैं; इसके लिए सक्रिय और आक्रामक कदम उठाने की आवश्यकता है।
उग्रवादियों ने विदेशी माल का बहिष्कार करने और स्वदेशी माल को अपनाने पर विशेष जोर दिया। उनका मानना था कि आर्थिक आत्मनिर्भरता और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार ब्रिटिश शासन को कमजोर करेगा। उन्होंने लोगों को जागरूक किया और भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने की दिशा में कदम उठाए। इसके साथ ही, उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ अधिक प्रत्यक्ष और सक्रिय विरोध के तरीकों का समर्थन किया, जिसमें जनसभाएँ, विरोध प्रदर्शन और बहिष्कार जैसे कदम शामिल थे।
इन नेताओं ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, बल्कि भारतीय समाज को भी नई ऊर्जा और उत्साह से भर दिया। उनके प्रयासों और विचारधारा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और आगे के आंदोलनों की दिशा को प्रभावित किया। इस प्रकार, उग्रवादी युग भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसने देश की आजादी की दिशा में एक नई दिशा प्रदान की।