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भारत में सुरक्षा हेतु सरकार द्वारा उठाये गये कदम

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Shilu Sinha

Shilu Sinha  @shilusinha

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भारत में खाद्य सुरक्षा हेतु सरकार द्वारा उठाये गये कदम

Ans:-खाद्य सुरक्षा की अवधारणा यह है कि एक देश में सभी लोगों के लिए पर्याप्त और उपयुक्त खाद्य उपलब्ध होना चाहिए, जिससे वे स्वस्थ और सक्रिय जीवन जी सकें। इसका मतलब है कि हर किसी को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार सही समय पर खाद्य प्राप्त होना चाहिए, और इसके लिए उनके पास पैसे और खाद्य की बुनाई करने के लिए सामग्री होनी चाहिए। यानी खाद्य सुरक्षा का मतलब है कि सभी लोगों को उनके खाने की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सही साधने और आर्थिक सामर्थ्य होना चाहिए।
खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट करते हैं:
I.खाद्य सुरक्षा का मतलब है कि एक देश में सभी लोगों के लिए खाद्य उपलब्ध होना चाहिए।
II.लोगों को खाद्य खरीदने की ताकत होनी चाहिए ताकि वे अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से खाद्य खरीद सकें।
III.खाद्य की गुणवत्ता और मात्रा इतनी होनी चाहिए कि लोग स्वस्थ और पूर्ण पोषण प्राप्त कर सकें।
IV.खाद्य सुरक्षा का मतलब यह भी है कि देश खाद्य की आपूर्ति को बढ़ाने के लिए तैयार होना चाहिए, ताकि वह भविष्य में जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती मांग को पूरा कर सके।

यह महत्वपूर्ण है कि जब एक समाज अपने आर्थिक विकास की दिशा में बढ़ता है, तो उसकी खाद्य सुरक्षा की विचारधारा भी बदल जाती है। 

आर्थिक विकास की विभिन्न चरणों में, खाद्य सुरक्षा की स्थिति निम्नलिखित तरीकों से बदल सकती है:
प्रथम चरण में, मानव जीवन को सुनिश्चित करने के लिए सभी को बुनाइयादी खाद्य की पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होनी चाहिए।
दूसरे चरण में, खाद्य सुरक्षा के दृष्टि से अनाज और दालों की पर्याप्त उपलब्धि महत्वपूर्ण होती है।
तीसरे चरण में, खाद्य सुरक्षा के अंतर्गत अनाज, दाल, दूध, फल, सब्जियां, मछली, अंडे और गोश्त जैसे आहार सामग्री शामिल की जा सकती है।
चौथे चरण में, खाद्य सुरक्षा का मतलब यह भी हो सकता है कि देश खाद्य की आपूर्ति को बढ़ाने के लिए तैयार हो, ताकि वह आने वाले समय में बढ़ती मांग को पूरा कर सके।

खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सरकारी प्रयास (Efforts Made by Government for Improving Food Problem)

अथवा
भारत सरकार की खाद्य नीति  (Food Policy of Indian Government)

सरकार ने देश में खाद्य समस्या के समाधान के लिए तीन प्रकार के उपाय किये :
(A) खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की दिशा में प्रयास (Measures to Raise Output of Food Grains)-
सरकार ने देश में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए तीन प्रकार के उपाय किये :
1.तकनीकी उपाय (Technocratic Measures) - सरकार ने 1966 के बाद, खाद्यान्नों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए नई तकनीकों का प्रयोग किया। इसमें सिंचाई की सुविधाओं को बेहतर बनाने के उपाय शामिल हैं, साथ ही उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक दवाएं, और मॉडर्न कृषि मशीनरी का प्रयोग किया जा रहा है। खेती में यंत्रीकरण को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। इससे खाद्यान्न की उत्पादन में वृद्धि हो रही है।
इसके अलावा, सरकार ने खाद्य उत्पादन को बढ़ाने के लिए कृषि विकास की योजनाएं, किसानों के लिए वित्तीय सहायता, और खाद्यान्नों की उपयोगिता को बढ़ावा देने वाली तकनीकों का प्रयोग किया है।
इन प्रयासों के माध्यम से, भारत सरकार खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए प्रयासरत है और खाद्यान्न की उत्पादन में सुधार कर रही है।
2.भूमि सुधार (Land Reform) - भारत सरकार ने खाद्य समस्या को कम करने और कृषि विकास को प्रोत्साहित करने के लिए भूमि सुधार कार्यक्रम चलाया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत:
(i) सभी राज्यों में मध्यस्थों को समाप्त करने के लिए कानून बनाए गए हैं।
(ii) विभिन्न राज्यों में जोती की उच्चतम सीमाबंदी लगाई गई है।
(iii) लगान को नियमित किया गया है।
(iv) जमींदारों और काश्तकारों से बेगारी को गैर-कानूनी घोषित किया गया है।
इसके बावजूद, भूमि सुधार उपायों की दोषपूर्ण विशेषता है और इनके लागू करने में कठिनाइयाँ आई हैं। इस कारण, इन उपायों का खाद्य उत्पादन पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ सका।

3.प्रेरक मूल्य नीति - भारत सरकार ने माना कि किसानों को उनकी फसलों के लिए अच्छे मूल्यों का पर्याप्त मिलना चाहिए ताकि खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि हो सके। इसके लिए, सरकार ने 1965 में कृषि कीमत आयोग (कृषि लागत और मूल्य आयोग) की स्थापना की। इस आयोग ने विभिन्न कृषि फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और वसूली कीमतों की घोषणा की है। इसका उद्देश्य किसानों को फसलों की बेहतर मूल्य मिलने की प्रोत्साहित करना है ताकि खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि हो सके।
(B) खाद्यान्नों के वितरण से संबंधित उपाय -
भारत सरकार ने खाद्य समस्या के समाधान के लिए वितरण से संबंधित निम्नलिखित उपाय किए हैं:
1.खाद्य क्षेत्रों की व्यवस्था - सरकार ने खाद्य नीति के तहत मूल्यों में स्थिरता और खाद्यान्नों के न्यायपूर्ण वितरण के लिए खाद्य क्षेत्रों की व्यवस्था की है। इस उद्देश्य के लिए खाद्य क्षेत्रों की स्थापना की गई, जो द्वितीय विश्व युद्ध के समय में आरंभ हुई थी। इसके बाद, 1964 में खाद्य संकट के समय, देश को आठ गेहूँ क्षेत्रों में बाँट दिया गया। दक्षिण भारत के लिए चावल क्षेत्र भी बनाया गया, लेकिन यह प्रयास असफल रहा। इसके परिणामस्वरूप, प्रत्येक राज्य को अलग-अलग खाद्य क्षेत्र बनाए गए हैं। खाद्य क्षेत्रों का मुख्य उद्देश्य वहां से खाद्यान्नों की वसूली करके, जहाँ पर्याप्त मात्रा में है, उन राज्यों को प्रदान करना है जिनमें खाद्यान्नों का उत्पादन उनकी मांग से कम है।
2.प्रतिरोधक भण्डारों का निर्माण और राज्य व्यापार - भारत में कृषि आज भी मानसून का खिलवाड़ है। यहाँ पर्याप्त उत्पादन की स्थिति को अस्थिर बनाते हैं क्योंकि मौसम के बदलाव के कारण उत्पादन अनियमित होता है। इसलिए, यह आवश्यक होता है कि अधिशेष उत्पादन के वर्षों में 'प्रतिरोधक भण्डारों (Buffer Stocks) का निर्माण किया जाए, ताकि उन वर्षों में जब उत्पादन कम होता है, तो इन भण्डारों से खाद्यान्न उपलब्ध हो सके। इस नीति के माध्यम से, अनियमित उत्पादन के बावजूद भी खाद्यान्नों की आपूर्ति को स्थिर और नियमित बनाया जा सकता है। इस संदर्भ में, सरकार ने जनवरी 1965 में "भारतीय खाद्य निगम" की स्थापना की, जिसका मुख्य कार्य खाद्यान्नों की खरीददारी, भंडारण, प्रेसर्वेशन और वितरण से संबंधित है।

3.चावल और गेहूँ के होलसेल व्यापार का राष्ट्रीयकरण (Nationalisation of Wholele Trade in Wheat and Rice) - भारत सरकार ने अपनी खाद्य नीति के तहत 1972-73 में चावल और गेहूँ के होलसेल व्यापार को राष्ट्रीय स्तर पर संचालित करने का निर्णय लिया, लेकिन इस निर्णय का अभिवादन होलसेल व्यापारिकों द्वारा किया गया। इसके अलावा, सरकार से टकराव और अकुशल प्रशासनिक व्यवस्था इस कार्य को सफल बनाने के लिए असमर्थ थी, और वास्तविकता यह है कि सरकार की इस योजना को साकार करने के लिए उसमें विशेष रूप से कारण नहीं थे। अंत में, 28 मार्च, 1974 को खाद्यमंत्री द्वारा एक घोषणा के माध्यम से इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया।
4. खाद्यान्नों की वसूली और सार्वजनिक वितरण (Procurement of Food grains and Public Distribution)- भारत सरकार ने बाजार की शक्तियों को नियमित करने के
उद्देश्य से आंशिक वसूली की नीति को अपनाया है। वसूली के द्वारा जो खाद्यान्न प्राप्त किये जाते हैं। उनकी बिक्री सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से की जाती है। यह प्रणाली खाद्यान्नों को उचित मूल्य पर दुकानों और राशन की दुकानों के माध्यम से बेचा जाता है।
5.थोक व्यापारियों से खरीद (Procurement from Wholesalers) - सरकार ने अपनी खाद्य नीति के अंतर्गत पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के थोक व्यापारियों और सहकारी समितियों से उनकी कुल खरीद का 50 प्रतिशत हिस्सा उगाही करने की नीति बनाई। सरकार की यह नीति ज्यादा सफल नहीं थी। थोक व्यापारियों द्वारा भ्रष्ट कर्मचारियों की सहायता से सरकार के लिए इसके 50 प्रतिशत खरीद को प्राप्त करना मुश्किल था।
(C) खाद्यान्नों की आयात (Import of Foodgrains) - खाद्यान्नों की तुरंत आवश्यकता को पूरा करने के लिए भारत सरकार ने समय-समय पर खाद्यान्नों को विभिन्न देशों से आयात किया है। अप्रैल 1956 में प्रतिरोधक भण्डार की व्यवस्था के उद्देश्य से भारत सरकार ने पहला पी. एल. 480 समझौता किया, जिसके अंतर्गत 31 लाख टन गेहूँ और 1. 9 लाख टन चावल का आयात हुआ। इससे भारत अमेरिका से पी. एल. 480 के समझौते के अंतर्गत खाद्यान्नों के आयात के युग में प्रवेश किया। वास्तव में, स्वतंत्रता के बाद केवल 15 वर्षों को छोड़कर, देश को हर वर्ष खाद्यान्नों का नेट आयात करना पड़ा।

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@abcd 1 days ago

Aquí los que apoyamos a Los del limit desde sus inicios..

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